भगत सिंह: आजादी के इस मतवाले के कितने रूप

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यशोदा श्रीवास्तव

23 मार्च के लिए विशेष

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जब हम तथाकथित प्रगतिशील लेखक की एक बहुचर्चित फिल्म देखते हैं तो जान पाते हैं कि गांधी का हत्यारा गोडसे इस गुस्से में गांधी का कत्ल कर देता है कि गांधी ने भगत सिंह को फांसी से बचाने का कोई उपाय तो नहीं ही किया, अंग्रेज हुकूमत के इस क्रूरतम कृत्य की निंदा तक नहीं की। गोडसे का महिमा मंडन करने के लिए खास तौर पर बनाई गई उस फिल्म में गोडसे अदालत में बहस के दौरान गांधी की हत्या पर अपनी सफाई के क्रम ऐसा कहते देखा जाता है और तब हम यह सोचने को मजबूर होते हैं कि यदि यह सच है तो गांधी ने सचमुच गलत किया। लेकिन जब हम भगत सिंह पर सर्च करते हैं तो फिल्म की पटकथा का यह अंश कोरा बकवास पाया जाता है।

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आज जब हम शहीद ए आजम भगत सिंह की शहादत के दिन उन्हें याद कर रहे हैं तो ढेर सारे ऐसे अनछुए पहलुओं पर भी गौर करना लाजिमी है जो भगत सिंह को जोड़ते हुए झूठ फैलाया गया। वाकई जब हम भगत सिंह को याद करते हैं और उनकी ही लिखी पुस्तकों को पढ़ते हैं तो भगत सिंह में सिर्फ आजादी के लिए मर मिटने वाले मतवाले का अकेला रूप नहीं पाते। मात्र 23 साल आठ महीने का यह नौ जवान बहुत आयामी व्यक्तित्व का भंडार दिखता है जिसमें ज्ञान अर्जन की ऐसी ललक होती है कि फांसी के वक्त तक किताबें पढ़ना नहीं छोड़ता। सोचिए! मौत के लिए फांसी का फंदा सामने हो, मृत्यु के बाद की अज्ञात दुनिया से अनभिज्ञ भगत सिंह फांसी के लिए बुलावा आने पर जेलर से पढ़ रहे पुस्तक के बाकी दो चार पेज खत्म करने की अनुमति मांग रहे हों। दरअसल इसके पीछे उनका मकसद समाज में ज्ञान का महत्व बताना था। आज जब व्यक्ति का जीवन भागते दौड़ते मशीन सा हो गई है, लोगों में किताबें पढ़ने की आदत न के बराबर रह गई हो,तब भगत सिंह के जेल में रहकर भी किताबों के पढ़ते रहने की आदत हमें प्रेरणा देती है कि मृत्यु के बाद भी यदि आप जिंदा रहना चाहते हैं तो वह आपके विचार और दुनिया को दिया आपका संदेश ही आपको जीवित रखते हैं। ऐसे लोग कभी नहीं मरते, जैसे भगत सिंह।
लाहौर के सेंट्रल जेल में भगत सिंह अपनी छोटी जिंदगी के हिस्से से 716 दिन गुजारे हैं। इस दौरान उन्होंने जेल के लायब्रेरी की सारी की सारी किताबें पढ़ डाली। भगत सिंह ने स्वयं को किताबों तक ही नहीं सीमित रखा। उनकी दृष्टि समाज के हर पहलू पर थी। तभी तो उन्होंने गांधी को भी समझ लिया और नेहरू को भी। यह सर्वविदित है कि भगत सिंह की फांसी की तिथि 24 मार्च तय थी लेकिन उनकी फांसी के बाद संभावित विद्रोह से घबड़ाई ब्रिटिश हुकूमत ने एक रोज पहले यानी 23 मार्च को उनके दो और मतवाले राज गुरु और सुखदेव के साथ फांसी दे दी।

इतिहास कार प्रो.राम पुनियानी जिनका भगतसिंह पर गहरा अध्ययन है, कहते हैं कि भगत सिंह ने बहुत छोटी उम्र में बहुत कुछ हासिल कर लिया था। चिर युवा अवस्था में वे देश की आजादी की जल्दबाजी में थे इसलिए हिंसात्मक आंदोलन के पक्षधर हुए। पंजाब में तैनात अंग्रेज अफसर सांडर्स मर्डर केस जिसमें वे गहन पुलिसिया तफ्तीश में मुजरिम पाए जाते हैं,यह उनके हिंसात्मक आंदोलन का हिस्सा हो सकता है तो मजदूर विरोधी विल के विरोध में असेंबली में किया गया बम धमाका उनके अहिंसावादी आंदोलन का सबूत है। बम धमाका को अहिंसावादी आंदोलन कैसे कह सकते हैं,यह सवाल जरूर मन में कौंधने वाला है लेकिन वह सोची समझी रणनीति के तहत ऐसा बम धमाका था जिसमें कोई मानव छति नहीं हुई थी। बम को जान बूझकर ऐसे जगह फोड़ा गया था जहां से किसी नुकसान की गुंजाइश जरा भी न हो। ऐसा करने के पीछे भगत सिंह की मंशा उन बहरों को जगाना रहा होगा जो अंग्रेजों का जुल्म सहते जा रहे थे लेकिन जरा भी चूं नहीं करते थे। उस रोज तो हद थी जब मजदूरों के नियंत्रण संबंधी विल पारित होना था। भगत सिंह इसके सख्त खिलाफ थे। जब हम भगत सिंह को स्वतंत्रता संग्राम का महान सेनानी कहते हैं तो यह जान लेना जरूरी है कि उनका मतलब सिर्फ देश को अंग्रेजों से मुक्त कराना भर नहीं था। वे गरीबी के खिलाफ भी लड़ रहे थे,भूख,भय और भ्रष्टाचार से आजादी चाहते थे। उनके समाजवाद में मजदूर, किसान, व्यापारी, उद्योगपति, अमीर, गरीब सबके लिए बराबरी की बात थी। वे एक साथ गुलामी के कई आयामों से लड़ रहे थे।

प्रो.पुनियानी फिल्म के उस झूठ पर से भी पर्दा हटाते हुए कहते हैं कि यदि हमें किसी फिल्म के गोडसे के संवाद पर यकीन करना है तो क्यों न हम फिल्मी दुनिया की उस महान मोहतरमा की बात पर यकीन करें जब वे 2014 में देश के आजाद होने की बात कहती हैं। वे कहते हैं कि भगत सिंह के फांसी के हफ्ता दो हफ्ता पहले गांधी जी ने वायसराय को बाकायदा चिट्ठी लिखी थी कि भगत सिंह को माफ कर दिया जाय क्योंकि उनका आंदोलन देश के लिए था। चूंकि वायसराय ही सबकुछ नहीं होते थे,ऊपर से भी आदेश लेना होता था लेकिन ब्रिटिश सरकार की ओर से भगत सिंह को माफी की इजाजत नहीं मिली। वेशक अंग्रेज हुकूमत ने गांधी की बात नहीं सुनी लेकिन जब भगत सिंह की फांसी हो गई तो कांग्रेस पार्टी के कराची अधिवेशन में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित हुआ जिसका मजमूंन गांधी जी ने ही लिखा था। बाद में लार्ड इरविन ने अपने फेयरवेल पार्टी में इस बात का खुलासा करते हुए कहा कि हम गांधी की अपील इसलिए नहीं मान सके क्योंकि सांडर्स की हत्या से पंजाब के हमारे अफसर बहुत आक्रोशित थे और उन्हें जैसी सूचना दी गई थी उस हिसाब से भगत सिंह की माफी से पंजाब के अफसरों में विद्रोह हो जाता। उन्होंने कहा कि भगत सिंह में गांधी और नेहरू के प्रति बहुत सम्मान था इसका उदाहरण यह है कि भले ही बाद में सही भगत सिंह ने आजादी के लिए गांधी के अहिंसावादी आंदोलन को ही जायज माना और नेहरू को आधुनिक भारत की समझ वाला युगद्रष्टा कहा। यही वजह रही कि भगत सिंह ने अपने हजारों लाखों अनुयाई युवकों से गांधी और नेहरू का साथ देने का आवाहन किया। भगत सिंह स्वयं कभी माफी के पक्ष में नहीं थे। उनके पिता लाख समझाते रहे कि भगत अभी बहुत छोटी उम्र के हो, माफी मांग लो और बाकी जिंदगी सकून से जियो। पिता को भगत सिंह का जैसा जवाब था उसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वे तकरीबन डांटने के अंदाज में पिता से कहते हैं कि जाइए गांधी और नेहरू के आंदोलन का हिस्सा बनिए। मैं जहां जा रहा हूं,जाने दीजिए।

वाकई भगत सिंह क्या बंदा था! जेल में रह कर जिसने कई कई पेज की चिट्ठियां लिखी, पुस्तक लिखे,गांधी को भी समझा और नेहरू को भी समझा। रास्ते अलग हो सकते हैं लेकिन गांधी ने जिस तरह समाज के अलग अलग लोगों को एक सूत्र में बांध कर रखने का काम किया वैसे ही भगत सिंह ने भी युवाओं में जोश भरा, भरी जवानी में अपने प्राण देकर उन्हें देश भक्ति का पाठ पढ़ाया और एकता में शक्ति का संदेश दिया।

भगत सिंह को लेकर ढेर सारी गलतफहमियां फैलाई गई हैं। यह भी कि जब उन्होंने “मैं नास्तिक क्यों हूं” नामक पुस्तक लिखी तो उन्हें वास्तव में नास्तिक करार कर दिया गया। जबकि यह भी सच नहीं है। हां उन्होंने धर्म के नाम पर आडंबर का विरोध जरूर किया। सोचिए उन्होंने धर्म के नाम की राजनीति से किसी भी देश को भारी नुक़सान का संकेत कितने साल पहले दे दिया था। प्रो.पुनियानी कहते हैं कि भगत सिंह धर्म के खिलाफ नहीं थे और न वे नास्तिक ही थे अलबत्ता धर्म के नाम पर आडंबर की आलोचना वे करते रहे हैं। धर्म अलग है और धर्म के नाम पर फैलाया जाने वाला आडंबर अलग है। आज चाहे श्री लंका हो, पाकिस्तान हो या अपना हिंदुस्तान ही क्यों न हो। आखिर इन देशों में धार्मिक आडंबर के नाम पर ही तो समस्याएं पैदा हो रही हो या पैदा की जा रही है। भगत सिंह को मुकम्मल जानने के लिए उनकी लिखी पुस्तकों को पढ़ना होगा। जब हम उनकी किताबों को पढ़ेंगे तो भगत सिंह के बाबत सुनी सुनाई किंवदंतियों के इतर यह भी जान पाएंगे कि आजादी का मतवाला यह नौजवान किस तरह यह चैलेंज कर अंग्रेज हुकूमत के नाक में दम कर रखा था कि हम आपके युद्ध बंदी है लिहाजा हमें तोप से दाग दो या गोलियों से उड़ा दो। अंत में यह कि हम गोदी मीडिया को आज जान पाएं हैं जबकि भगत सिंह तभी इसके दुष्प्रभाव को भांप लिए थे। इसीलिए उन्होंने ब्रितानी अदालत में अपने मुकदमे की पैरवी खुद करने की मांग की थी। ऐसा करते तो तब कि मीडिया को उनके बाबत अंग्रेजों के झूठ के साथ भगत सिंह की बात भी छापने को मजबूर होना पड़ता। भगत सिंह के इस रूप को जब हम देखते हैं तो उनमें एक पत्रकार का होना भी पाते हैं।

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Pradeep Gupta

Nothing but authentic. Chief Editor at www.prabhat.news