…क्यों दोषमुक्त लोकतंत्र चाहते थे लोकनायक
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बलिया। सर्वोदय और भू-दान आंदोलन की सीमित सफलता से दुःखी जयप्रकाश नारायण लोकतंत्र को दोषमुक्त बनाना चाहते थे. वो धनबल और चुनाव के बढ़ते खर्च को कम करना चाहते थे, ताकि जनता का भला हो सके. साथ ही जेपी का सपना एक ऐसा समाज बनाने का था. जिसमें नर-नारी के बीच समानता हो और जाति का भेदभाव न हो.
आज से 50 साल पहले संपूर्ण क्रांति के नायक जयप्रकाश नारायण ने तानाशाही शासन के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूंका था. केंद्र सरकार के द्वारा लगाए गए आपातकाल के बाद इस आंदोलन को धार मिली. धीरे-धीरे आंदोलन की लपट पूरे देश में फैल गई और देशवासियों ने नए युग के सूत्रपात का सपना देखा, लेकिन कुछ दूरी तय करने के बाद जेपी के सपने मुकाम तक नहीं पहुंच पाए.
आज से ठीक 50 साल पहले यानी कि 5 जून 1974 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान से संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया था और गांधी के सपनों का भारत बनाने के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन किया था. इस आंदोलन से बिहार गहरे रूप से प्रभावित हुआ था.
जेपी ने दिया था संपूर्ण क्रांति का नारा

जेपी का आंदोलन भ्रष्टाचार के विषय पर हुआ था शुरु
बता दें कि जेपी वो इंसान थे, जिन्होंने व्यवस्था परिवर्तन के लिए संपूर्ण क्रांति का नारा दिया था. आंदोलन अपने शबाब पर था, तभी जेपी को गिरफ्तार कर लिया गया. इसका परिणाम यह हुआ कि जैसा सोचा गया था, वैसी परिणति सामने नहीं आ पाई. बिहार के सिताब दियारा में जन्मे जयप्रकाश नारायण ऐसे शख्स के रूप में उभरे, जिन्होंने पूरे देश में आंदोलन की लौ जलाई. जेपी के विचार दर्शन और व्यक्तित्व ने पूरे जनमानस को प्रभावित किया. लोकनायक शब्द को जेपी ने चरितार्थ भी किया और संपूर्ण क्रांति का नारा भी दिया. 5 जून 1974 को विशाल सभा में पहली बार जेपी ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया था.
ऐसे में जब गुजरात और उसके बाद बिहार के विद्यार्थियों ने उनसे नेतृत्व संभालने का आग्रह किया तो उनकी आंखों में चमक आ गई थी और उन्होंने संपूर्ण क्रांति का आह्वान कर दिया था.
इस संपूर्ण क्रांति आंदोलन का मक़सद क्या था? वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन कहते हैं, ”जेपी का आंदोलन भ्रष्टाचार के विषय पर शुरू हुआ था. बाद में इसमें बहुत कुछ जोड़ा गया और यह संपूर्ण क्रांति में परिवर्तित हो गया और व्यवस्था परिवर्तन की ओर मुड़ गया. इसके तहत जेपी ने कहा कि यह आंदोलन सामाजिक न्याय, जाति व्यवस्था तोड़ने, जनेऊ हटाने, नर-नारी समता के लिए है. बाद में इसमें शासन, प्रशासन का तरीका बदलने, राइट टू रिकॉल को भी शामिल कर लिया गया. वह अंतरजातीय विवाह पर ज़ोर देते थे.”
जेपी की क्रांति का मतलब परिवर्तन और नवनिर्माण दोनों से था.
ऐसे में जब जेपी ने 5 जून 1974 के दिन पटना के गांधी मैदान में औपचारिक रूप से संपूर्ण क्रांति की घोषणा की तब इसमें कई तरह की क्रांति शामिल हो गई थी. इस क्रांति का मतलब परिवर्तन और नवनिर्माण दोनों से था. हालांकि, एक व्यापक उद्देश्य के लिए शुरू हुआ जेपी का संपूर्ण क्रांति आंदोलन बाद में दूसरी दिशा में मुड़ गया.
एक व्यापक उद्देश्य के वास्ते शुरू हुए आंदोलन के एक दूसरी दिशा में मुड़ जाने के लिए वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय जेपी की एक भूल को जिम्मेदार मानते हैं. वह मानते हैं कि एक भूल के कारण एक व्यापक उद्देश्य के लिए शुरू हुए आंदोलन की धारा बदल गई.
भूल के बारे में पूछे जाने पर राम बहादुर राय कहते हैं, ”जिस आंदोलन को बाद में जेपी आंदोलन कहा गया वह दरअसल 9 अप्रैल 1974 को शुरू हुआ था. लेकिन जेपी की ही एक ग़लती से वह आंदोलन संसदीय राजनीति की ओर मुड़ गया. वह ग़लती यह थी कि वह कुछ लोगों के कहने से इंदिरा गांधी से मिलने के लिए गए और इंदिरा गांधी ने उनके अहम को सीधी चोट पहुंचाई और यह कहा कि जेपी आप देश के बारे में कुछ सोचिए. इससे जेपी बहुत आहत हुए.”
रामबहादुर राय ने बताया कि इस घटना के बाद जेपी ने अपने मित्रों से कहा कि अब इंदिरा गांधी से हमारा जो मुक़ाबला है वह चुनाव के मैदान में होगा. ऐसे में जो आंदोलन संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य लेकर चला था वह चुनाव के मैदान में शक्ति परीक्षण में बदल गया.
जयप्रकाश नारायण के ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन शुरू करने का उद्देश्य सिर्फ़ इंदिरा गांधी की सरकार को हटाना और जनता पार्टी की सरकार को लाना नहीं था, बल्कि उनका उद्देश्य राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा बदलाव करना था. साथ ही यह आंदोलन व्यवस्था परिवर्तन के लिए था.
ऐसे में यह सवाल उठना लाज़मी है कि जयप्रकाश नारायण ने जिस जाति-विहीन समाज, नर नारी समता, सामाजिक न्याय के सपने देखे उसे साकार करने के लिए उन्हें आंदोलन की दिशा बदलनी नहीं चाहिए थी?
इस पर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर रह चुके आनंद कुमार कहते हैं, ”ऐसा कई परिस्थितयों और आपातकाल के कारण हुआ. ऐसे में उन्होंने एक लाचार किसान की तरह अपना और पराया, घर का कमाया और उधार का लिया हुआ, उनके पास जो कुछ भी उपलब्ध था, उसे जोड़ कर वह जैसे तैसे जनतंत्र को ही बचा पाए. वह जिस सहभागी लोकतंत्र के लिए प्रयास करना चाहते थे, वह लक्ष्य उन्हें छोड़ना पड़ा क्योंकि जो एक लंगड़ा-लूला लोकतंत्र था वही ख़तरे में पड़ गया था.”
आनंद कुमार जेपी के नेतृत्व में 1974 से 1979 तक पांच साल किए गए काम को अपने जीवन का सबसे प्रेरक और आकर्षक पक्ष मानते हैं. आंदोलन के दौरान वह जेएनयू में छात्र थे और पटना, इलाहाबाद, दिल्ली और हरियाणा में काफी सक्रिय थे. वह बताते हैं कि जेपी के साथ उनका तीन पीढ़ियों का संबंध था और वह 1974 में जयप्रकाश की ओर झुके और उनके आंदोलन में शामिल हुए थे.
प्रोफेसर कुमार की बातों को रामबहादुर राय भी आगे बढ़ाते हैं.
वह कहते हैं, “उस आंदोलन में इमरजेंसी ने एक अलग भटकाव पैदा कर दिया. इसके बाद लक्ष्य यह हो गया कि किसी तरह लोकतंत्र बहाल हो. 1977 की उपलब्धि कहेंगे कि लोकतंत्र फिर से बहाल हो गया. अनुपलब्धि यह है कि जेपी के संपूर्ण क्रांति के सपने को साकार नहीं किया जा सका.”
संघ को स्वीकार्यता किसने दिलाई
जेपी के बारे में एक मत यह भी है कि उन्होंने आरएसएस मुख्यधारा में लाने और सामाजिक स्वीकार्यता दिलवाने में योगदान किया.
आरएसएस को स्वीकार्यता प्रदान कराए जाने के बारे में पूछे जाने पर जेएनयू विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर मणीन्द्रनाथ ठाकुर कहते हैं, ”ऐसा ज़रूर हुआ. स्वतंत्रता संग्राम के बाद आमतौर पर जनसंघ या आरएसएस वालों को कोई स्वीकृति नहीं मिली थी जो जेपी आंदोलन में पहली बार मिल गई.”
जेपी की जन्मभूमि सिताब दियारा.
हालांकि, वह इसका दूसरा पक्ष भी सामने रखते हैं. वह कहते हैं कि ऐसा जेपी चाहते या नहीं चाहते फिर भी होता. यह उसी तरह से है जैसे अन्ना हज़ारे के आंदोलन में उन्हें क्या मालूम था कि भाजपा वाले लोग आ रहे हैं या नहीं आ रहे हैं. लेकिन वह एक फोर्स था, वह आया.
वह बताते हैं,”किसी भी आंदोलन का जो नेतृत्व होता है वह अपने आप उभरता है. हालांकि, उस आंदोलन पर उसका नियंत्रण नहीं होता है. इस मायने में जयप्रकाश का आंदोलन ख़ास मायने में स्वत: स्फूर्त था. उन्होंने आंदोलन को खड़ा नहीं किया. एक आंदोलन चल रहा था जिसने तय किया कि जेपी उनके नेता होंगे. वह किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़े हुए थे. ऐसे में गुजरात और फिर बिहार के छात्रों ने उन्हें नेतृत्व संभालने के लिए बुलाया था. लेकिन शुरू में भी और उससे निकले परिणाम पर भी जयप्रकाश का बहुत ज्यादा नियंत्रण नहीं था.”
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