आगे ही नही पीछे भी… विभाजन बेमतलब

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अभी-अभी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंचालक डॉ. मोहन भागवत ने अपनी नीति और कार्यक्रमों को उद्‌भाषित करते हुए कहा है कि हिन्दू हैं तभी भारत है, और भारत हिन्दुओं से ही है। जब-जब हिन्दू कमजोर हुआ है तब-तब भारत को नुकसान हुआ है। इसलिए अखण्ड भारत का सपना साकार करने के लिए विभाजन का निरस्त होना आवश्यक है। विभाजन के कई रूप हैं, इतिहास इस बात का साक्षी है कि गांधार (अफगानिस्तान) को अंग्रेजों ने भारत से काटकर 18 अगस्त 1919 को अलग कर दिया, ब्रह्मदेश (वर्मा, अब म्यान्मार) को भी अलग करने की पक्की भूमिका बना दी और उसे भारत के संविधान के बनने से पहले 4 जनवरी 1948 को भारतीय भू-भाग से अलग होना पड़ा। 14 अगस्त 1947 को अंग्रेजों ने भारतीय भू-भाग पर पाकिस्तान बना दिया और उसमें भी पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान, जिसकी राष्ट्रीयता एक और विधान भी एक रहा। सिक्किम हिमालय क्षेत्र का एक स्वतन्त्र राज्य था जिसका 1975 में भारतीय संघ में विलयन हो गया। पूर्वी पाकिस्तान 26 मार्च 1971 को बांग्लादेश बन गया और वह पाकिस्तान से अलग होकर स्वतन्त्र राष्ट्र बना।

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पाकिस्तान बनकर भारत विभाजित हुआ था अब पाकिस्तान भी विभाजित हो गया। बङ्गबन्धु शेख मुजिबुर रहमान के नेतृत्व में चल रही लड़ाई के दौरान भारतीय सेना के सामने पाकिस्तान के एक लाख सैनिकों का आत्मसमर्पण विश्व इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया। अंग्रेजों ने अपने उपनिवेशवादी शासन को अधिक मजबूत करने और विभेदित राजनीति को प्रश्रय देने के उद्देश्य से विभाजन की नीति अपनायी। अफगानिस्तान मुस्लिम क्षेत्र और वर्मा बौद्ध क्षेत्र। भारत से अलग होने के बाद अफगानिस्तन, पाकिस्तान और बांग्लादेश मुस्लिम राष्ट्र बनें और म्यामार बौद्ध राष्ट्र। अंग्रेजों ने अपनी फूट डालो नीति के तहत 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में भाषाई विभेद, साम्प्रदायिकता, शिक्षा नीति में परिवर्तन, पूरे देश में पर समान कानून, राजे-रजवाड़े की सत्ता बरकरार रखने अथवा उन पर आत्म समर्पण करने का दबाव डाल कर जिस तरीके से और जिस शलीके से अपनी पकड़ मजबूत की और यहाँ के लोगों की कमजोरियों जान कर, जिस भविष्य का निर्माण किया, वह देश और दुनिया से छिपा हुआ नहीं हैं।

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विभाजन का आन्तरिक परिवेश भी जानना आवश्यक है इसके लिए वे तत्व भी कम उत्तरदायी नहीं हैं जो साम्प्रदायिकता के रूप में पल रहे थे और उसे अंग्रेजों ने हवा दे दी। 19वीं शताब्दी के प्रथम दशक में भाषाई भेद और उसे साम्प्रदायिक रंग देकर पिछले कई शताब्दियों से चली आ रही समावेशी संस्कृति में दरार डालने की नींव डाली थी जो उभरकर सामने आ ही गयी । आल इण्डिया मुस्लिम लीग की स्थापना 30 दिसम्बर 1906 को ढाका में हुई। जिसका उद्देश्य मुस्लिम समुदाय को एकजूट करके, आजादी की लड़ाई लड़ना था । इस संगठन का एक अधिवेशन 10 वर्ष बाद 26 से 30 दिसम्बर 1916 को लखनऊ में हुआ। इस अधिवेशन में मोहम्मद अली जिन्नाह को आगे करके मुस्लिम लीग और कांग्रेस कमेटी के बीच एक समझौता हुआ जिसे लखनऊ पैक्ट के नाम से जाना जाता है। इस अधिवेशन का मुख्य उद्देश था मुस्लिम समुदाय और कांग्रेस को मिलकर आजादी की लड़ाई लड़ना । प्रथम विश्वयुद्ध के बाद तुर्की में खलीफा की सत्ता को लेकर विवाद पैदा हुआ जिसमें मुस्लिम समुदाय में महात्मा गाँधी पर खलीफा की सत्ता को समर्थन देने का दबाव बनाया। इस आन्दोलन को खिलाफत आन्दोलन कहा गया। मुस्लिम समुदाय के कुछ नेता गाँधी जी की भूमिका से असन्तुष्ट भी हुये। उधर 1914 में हिन्दू महा सभा का भी गठन विनायक दामोदर सावरकर के नेतृत्व में हो चुका था। वे उसके पहले अध्यक्ष और उनके सहयोगी डा° केशव राव बलीराम हेडगेवार हुए। सावरकर हिन्दू सभा के छः बार अध्यक्ष हुए इस संगठन का उद्देश्य हिन्दू समाज को संगठित करना और उसमें अपने देश और संस्कारों के प्रति आस्थावान बनाना था।

उन दिनों काँग्रेस का स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोलन तीव्र गति से आगे बढ़ रहा था। कहना न होगा कि महात्मा गाँधी का प्रवेश धमाकेदार रीति से हो चुका था। हिन्दू सभा के ये दोनों अग्रणी काँग्रेस के सेवा दल में थे और हिन्दू सभा के संस्थापक भी। सावरकर की महात्मा गांधी से साम्प्रदानिक सवालों पर पटती नहीं थी फिर भी उन्होंने देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के अन्याय का जबरदस्त विरोध किया और अपना क्रांतिकारी तेवर दिखाते रहे। वे कवि और लेखक थे, उन्होंने कई पुस्तकें लिखी, 1857 के बैरकपुर छावनी में मंगल पाण्डेय के क्रांतिकारी कदम को अंग्रेज जिसे सैनिक विद्रोह कहते थे, सावरकर ने उसे स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम अध्याय घोषित किया। अपने क्रांतिकारी व्यक्तित्व एवं गतिविधियों के चलते उन्हें आजीवन कारावास के रूप में दो बार कालापानी की सजा दी गई। हिन्दू महासभा के प्रति अटूट निष्ठा और अंग्रेजी हुकूमत के अन्याय का विरोध सावरकर के व्यक्तित्व का पहचान बन गया। काला पानी की सजा के चलते सावरकर हिन्दुत्व के लिए कुछ कर नहीं पा रहे थे इसलिए उन्होंने अंग्रेजी शासनाध्यक्ष को माँफी नामा देकर बाहर आने की पेशकश की ताकि वे अपने हिन्दूत्व बादी एजेण्डा को चरितार्थ कर सके। सावरकर ने अपने दयावेदन (मर्सी अपील) में लिखा कि अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, तो मैं यकीन दिलाता हूँ कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूँगा और अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादार रहूंगा। उनकी दया याचना को अंग्रेजी हुकूमत ने स्वीकार कर उन्हें मुक्त कर दिया। सावरकर ने अपने मूल एजेंडे पर अधिक प्रभावी ढंग से काम करना शुरू किया और ‘हिन्दुत्व’ की नयी परिभाषा देते हुए अपनी सोच प्रगट की जिसमें हिन्दुत्व का सम्बन्ध हिन्दू धर्म से न होकर हिन्दू समाज बना।

इसी बीच डा० केशव बलीराम हेडगेवार मे नागपुर (महाराष्ट्र) में चित्तपाणी ब्राह्मणों को लेकर 27 सितम्बर 1925 विजयदशमी के दिन हिन्दू युवक क्लब की नींव डाली जिसका उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों में हिन्दू युवकों को संगठित करना, सांस्कृतिक श्रेष्ठता का अभिमान उत्पन्न करना तथा उनमें एक राष्ट्रवादी ऊर्जा प्रगट करना था। यही क्लब तीन वर्षों के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के रूप में अस्तित्व आया जिसके प्रथम संचालक डॉ. हेडगवार हुए। संघ की कोई सदस्यता नहीं थी। इसका उद्देश्य हिन्दूओ को संगठित करके उनमें राष्ट्रवाद उत्पन्न करते हुए अर्ध-सैनिक संगठन का रूप देना रहा। सावरकर संघ के कभी भी सदस्य नहीं रहे फिर भी संघ ने उन्हें सर्वोच्च आदर प्रदान किया। संघ एक प्रशिक्षक संगठन है जो अपनी लाखो शाखाओं के माध्यम से हिन्दुत्व-वादी राष्ट्रवाद और अर्ध-सैनिक प्रशिक्षण के साथ-साथ अपने शिविरों का संगठनात्मक प्रशिक्षण भी देता है। संघ द्वारा प्रशिक्षित उसके उद्देश्यों के प्रति निष्ठावान व्यक्तियों को अपनी बहुमुखी प्रतिभा को प्रदर्शित करने की छूट रहती है। जो कला संस्कृति, साहित्य-भाषा, राजनीति सामाजिक कार्य शिक्षा एवं संस्कार एवं संस्कृति के क्षेत्र में तथा प्रशासनिक परिवेश में कार्य कर सकते हैं। संघ की दर्जनों गतिविधियो संचालित होती हैं। जिसमें कभी जनसंघ, जिसकी स्थापना डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 21 अक्टूबर 1951 को दिल्ली में किया था और जनता पार्टी से विघटित होने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने भारतीय जनता पार्टी की नींव रखी, को संघ के उद्देश्यों को पूरा करने वाली राजनैतिक पार्टी माना जाता है। संघ ने भाजपा के अथवा भाजपा ने संघ और नीतियों का विरोध भी नहीं किया।

दो सभ्यताओं और दो ढंग के संस्कारों वाले हिन्दू व मुसलमान एक साथ सदियों से रह रहे थे जिनमें फूट डालने की नींव अंग्रेजों ने यह भी कह कर डाल रखी थी कि मुसलमान भारत में आक्रान्ता बनकर आये जिन्हें यहाँ की संस्कृति ने अपना लिया। उन्होंने एक ओर हिन्दुत्व तो दूसरी ओर इस्लामियत को लेकर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया। वे कहते थे कि आर्य विदेश से आये अर्थात उनका मन्तव्य था कि भारत साम्प्रदायिकता की उन्मादी बहक में एक जूट होकर न रहने पाये। भाउकता के सहारे उनका उद्देश्य पूरा हो सकता था। उधर राष्ट्रीय स्वयं सेवक दल के माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने भी अपने ढंग से ऐसी बातें कहीं। मुहम्मद अली जिन्ना के मन में भी मुस्लिम साम्प्रदायिकता के स्वर जो दबे-दबे थे, अंग्रेजों की कुटिल चालों के चलते मुस्लिम लीग की बैठक जो 23 जुलाई 1940 को हुई उसमें मुसलमानों का देश बनाने का प्रस्ताव रख ही दिया। अफगानिस्तान बनते समय उसका विरोध नहीं हुआ और वर्मा बनते समय भी उसका विरोध नहीं हुआ। आजादी की लड़ाई में कांग्रेस और मुस्लिम संगठन आखिरी साँस तक एक साथ रहे। पाकिस्तान के अलग होते पर भी जिन्ना तो पाकिस्तान चले गए किन्तु उनका परिवार भारत में ही रह गया । पाकिस्तान मुस्लिम देश बना किन्तु भारत पंथ निरपेक्ष। अतिवादी मुस्लिम समुदाय के लोग पाकिस्तान चले गये किन्तु भारत के प्रति निष्ठावान एवं देश भक्त मुसलमान भारत में ही रहे। हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर इस प्रकार के आछेप लगते रहे हैं कि उनके लोगों ने अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम में भाग नहीं लिया। कुछ लोगों ने भाग भी लिया तो उन्होंने माँफी भी माँग ली। आजादी की लड़ाई के समय जब पूरा देश अपनी संकीर्णताओं से उपर उठकर देश को आजाद कराने में लगा रहा, उस समय यह संगठन हिन्दुत्व की भावना से कार्य कर हि थे।

संघ प्रमुख का संदेश तभी सार्थक हो सकता है, जब मानसिक और बौद्धिक स्तर पर एकत्व बोध अनुभव किया जाय। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यान्मार के निवासियों में भारतभूमि का होने का गर्व महसूस हो। इसके लिए प्रयास करने होंगे और अपने देश के भीतर ऐसा कुछ भी नहीं करना होगा और न करने की सोचना होगा जिससे यहाँ के निवासियों के मन मस्तिक में किसी के प्रति कोई दुषित विचार पैदा न हो सके हमारे संगमी संस्कृति और अधिक मजबूत बनी रहे।

कृपया अपने विचार नीचे कमेंट सेक्शन में साझा करें।

Shivji Pandey

शिव जी पाण्डेय “रसराज”

01 दिसंबर 2021

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2 thoughts on “आगे ही नही पीछे भी… विभाजन बेमतलब

  • December 1, 2021 at 9:27 am
    Permalink

    संघ प्रमुख का संदेश सर्वथा उचित है।

  • December 1, 2021 at 12:18 pm
    Permalink

    Very interesting and deep knowledge. Really appreciate it.

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